Opinion: क्या न्यूनतम साझा मूल्य तय करने वाला कानून बनाना संभव है?

एक बार फिर दिल्ली के सीमावर्ती राज्यों खासकर पंजाब के किसान दिल्ली की तरफ कूच कर रहे हैं. उनकी मांग है कि सरकार न्यूनतम साझा मूल्य की गारटी सुनिश्चित करने वाला एक कानून लेकर आए. कुछ किसान संगठन चाहते हैं कि सरकार न्यूनतम साझा मूल्य-एमएसपी को लेकर देश भर के लिए एक कानून बनाए. यानी हर किसान के द्वारा उगाई गई फसल के लिए केन्द्र सरकार एक एमएसपी सुनिश्चित करे. किसान संगठनों ने 24 फसलों के नाम दिए हैं जिनकी एमएसपी की गारंटी सुनिश्चित करने की मांग की गई है. देर रात तक पीयूष गोयल के नेतृत्व में केंद्र सरकार के तीन मंत्रियों ने खासी जद्दोजहद की, लेकिन किसान संगठनों के साथ बैठक बेनतीजा रही. आलम ये है कि दिल्ली की सभी सीमाएं सील कर दी गई हैं. लोगों को आवाजाही में मुश्किल आ रही है. हरियाणा के शंभू बॉर्डर पर किसानों को रोकने के लिए पुलिस आंसू गैस के गोले छोड़ रही है. उच्चतम न्यायालय ने भी पूरे मामले का संज्ञान लिया है.

यूनिवर्सल एमएसपी की मांग यथार्थ से परे
किसानों द्वारा बताई गईं 24 फसलों पर एमएसपी की मांग को लेकर जो आंकड़े सामने आ रहे हैं उसमें तीन मुख्य बिंदु हैं जो ये सरकार के किसान विरोधी होने के नरेटिव गलत साबित हो रहे हैं. पहला ये कि 2020 के केन्द्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, भारत के कुल कृषि उत्पादन की कुल कीमत 40 लाख करोड़ रुपये तक आती है. इसमें डेयरी, कृषि, हॉर्टीकल्चर, लाइवस्टॉक और फसलों की एमएसपी शामिल हैं. दूसरा बिंदू है वर्ष 2020 में कुल कृषि उत्पाद की बाजार में कीमत 10 लाख करोड़ रुपये थी. इसमे वो सभी 24 फसलें शामिल थीं जिसको एमएसपी के अंतर्गत लाने की मांग किसान संगठन कर रहे हैं. पिछले 2-3 सालों मे किसानों को बार-बार गलत बयानी कर ये मानने पर मजबूर किया गया है कि एमएसपी भारत की कृषि व्यवस्था का अभिन्न अंग है. ये गलत है और सच्चाई से परे है. वित्तिय वर्ष 2020 में सरकार की कुल खरीद और किसानों को दिए गए एमएसपी- मिनिमम सपोर्ट प्राइस 2.5 लाख करोड़ था जो कि कुल कृषि उत्पादन का 6.25 फीसदी था. महज 25 फीसदी कृषि उत्पाद एमएसपी के अंतर्गत आए थे.

10 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ
अगर केन्द्र सरकार एमएसपी की गारंटी को लागू करती है तो सरकार पर हर साल 10 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. सरकारी सूत्रों के मुताबिक, अगर इन तमाम आंकड़ों को आम जनता के ध्यान में लाएं तो साफ हो जाएगा कि ये राशि मोदी सरकार द्वारा अंतरीम बजट में इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए रखी गई कुल राशि यानी 11.11 लाख करोड़ के करीब बैठती है. कृषि मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक, ये 10 लाख करोड़ की राशि मोदी सरकार द्वारा पिछले 7 वित्तिय वर्षों 2016-23 में इंफ्रास्ट्रक्चर पर कुल औसत सालाना खर्च 67 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा बैठता है. साफ है कि एक यूनिवर्सल एमएसपी की मांग न तो आर्थिक और न ही वित्तिय व्यवस्था के लिए सही है. बल्कि इसके उलट ये राजनीति से प्रेरित मोदी सरकार के खिलाफ छेड़ी गई एक मुहिम मानी जा सकती है. जबकि किसानों के कल्याण के लिए मोदी सरकार पिछले दस सालों में यादगार काम किए हैं.

किसानों की मांग से वित्तिय संकट
सरकारी सूत्रों के मुताबिक अगर सिर्फ बहस के लिए ही ये मान लिया जाए कि सरकार मांग की गई तमाम फसलों का एमएसपी देने को तैयार हो जाए लेकिन ये 10 लाख करोड़ रुपये आएंगे कहां से? क्या भारत के नागरिक को ये हजम होगा कि मोदी सरकार अपना रक्षा बजट और इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च कम कर ले? या फिर एक ही सरकार के पास एक ही उपाय बचेगा कि वो प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर बढ़ाए? जाहिर है कि किसान आंदोलन की ये समस्या न तो कृषि और न ही अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई है बल्कि 2024 लोकसभा चुनावो से पहले विपक्षी दलों द्वारा भड़काया गया हंगामा है जिसकी आड़ में वे अपने भ्रष्टाचार को छुपाना चाहते हैं. सूत्रों की माने तो वित्तिय वर्ष 2025 में होने वाली कुल बजट खर्च राशि 45 लाख करोड़ रुपये में से 10 लाख करोड़ रुपये यूनिवर्सल एमएसपी में लगाए जाने का आइडिया ही देश की अर्थव्यवस्था से जुड़े विशेषज्ञों में सिहरन पैदा कर देता है. ये एक वित्तिय आपदा साबित होगा जो कि भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार देगा.

Tags: Farmer, Farmer Agitation, Kisan Movement, Minimum Support Price

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